लोरी..........(अनु)

5:50 AM

बचपन से सुनती आयी थी
वो अटपटी सी कविता
न अर्थ जानती थी
न सुर समझती....
कविता थी या गीत ???
मचलती आवाज़ से लेकर
खरखराती ,कांपती आवाज़ तक
जाने कितनी बार सुना
लफ्ज़ रटे हुए थे...
जब जब कहती
तब तब वो बेहिचक सुनाने लगते
और मैं खूब हंसती...
बस अपने बाबा की बच्ची बन जाती.......

बरसों बाद...
उस रोज़
उस जीर्ण काया के सिरहाने खडी
अचानक वही गीत गाने लगी..
अनायास ही
लगा कि वो मुस्कुराए...
कस के हाथ थामे खडी गुनगुनाती रही....
अटपटे बेमानी से शब्द,
जो सुना था वही दुहराती रही.......


वही मुस्कान चेहरे पर लिए
पिता के दिल ने
आख़री बार हरकत की
और फिर शान्ति...
मानो गहरी नींद में चले गए हों......


एक कौतुहल जागा मन में...
और जाने पहले ये ख़याल क्यूँ नहीं आया था ...
खोजबीन की तो पता लगा
वो अटपटा गीत,जिसके अर्थ से अनजान थी
वो एक लोरी थी.....जो गुनगुनाया करते थे पापा........


और जब मैंने गुनगुनाया तो वे सचमुच सो गए
शायद सुख सपनों में कहीं खो गए.....


(अनु)

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